सरयू तट पर स्थित लक्ष्मण किला में इन दिनों पूर्व आचार्य एवं रामकथा की शास्त्रीय धारा के दिग्गज विद्वान स्वामी सीतारामशरण की 17वीं पुण्यतिथि मनाई जा रही है। स्मृति दिवस की शुरुआत सोमवार को रहस्योपासना के प्रतिनिधि ग्रंथों नामकांति, रूपकांति, लीलाकांति, धामकांति आदि के पारायण से हुई।
वर्तमान लक्ष्मण किलाधीश एवं दिवंगत आचार्य के शिष्य महंत मैथिलीरमण शरण ने बताया कि 10 मार्च को श्रद्धांजलि सभा एवं वृहद भंडारा के साथ पुण्यतिथि के कार्यक्रम का समापन होगा।
लक्ष्मण किलाधीश स्वामी सीतारामशरण को याद करना संतत्व के एक युग का स्मरण है। यद्यपि उनकी प्रतिभा दुनियादारी के किसी भी आयाम में लगकर अपना लोहा मनवा सकती थी किंतु उन्होंने तरुणाई में ही संतत्व की जो राह अख्तियार की, उससे कभी विचलित नहीं हुए। बिहार प्रांत के पटना जिलांतर्गत अपनी समृद्ध पैतृकता को तिलांजलि देकर अयोध्या आए स्वामी जी यहीं के होकर रह गए।
राम भक्ति के साथ उनका मन रामकथा के प्रसंगों में बखूबी रमा और शीघ्र ही उन्होंने अपनी पहचान तेजस्वी साधक व रामकथा के मार्मिक व्याख्याकार की बनाई। 1957 में प्रतिष्ठित पीठ लक्ष्मण किला की महंती संभालने के साथ उन्होंने धर्म, संस्कृति एवं अध्यात्म को संस्थाबद्ध भी किया। इस बीच उनका प्रभामंडल रामनगरी से आगे बढ़ता हुआ संपूर्ण सनातन जगत में स्थापित हुआ। वे स्वामी अखंडानंद एवं करपात्री जी के साथ संतों की शीर्ष त्रिमूर्ति में से एक माने जाते रहे। बीएचयू में बाल्मीकि रामायण पर उनका व्याख्यान मील का पत्थर माना जाता है। कहां तो वह गए थे एक सत्र को संबोधित करने पर साहित्य-संस्कृति के युवा अध्येताओं एवं अध्यापकों पर उनकी ऐसी छाप पड़ी कि दशकों तक उन्हें व्याख्यान के लिए विश्वविद्यालय आमंत्रित किया जाता रहा। 1973 में उन्होंने अयोध्या से सीतामढ़ी तक ऐसी रामबारात निकाली, जिसकी मिसाल आज भी दी जाती है। बिहार के तत्कालीन राज्यपाल एवं मुख्यमंत्री आदि ने बारात का राजकीय सम्मान किया और बारात की शोभा-सजावट कुछ वैसी झलक पेश करने वाली थी, जैसी त्रेता में भगवान राम की बारात रही होगी।
1975 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के समय जब मंदिरों के अधिग्रहण की आशंका छिड़ी तो वे किलाधीश ही थे, जिनकी मध्यस्थता में अधिग्रहण का बादल छटा। उनके इस प्रभाव के पीछे प्रवचन के फलक पर उनकी राष्ट्रीय ख्याति और बड़ी संख्या में शिष्यों प्रशंसकों की फौज रही। 1997 में इहलीला का संवरण करते हुए सांस्कृतिक-आध्यात्मिक जगत में ऐसी शून्यता छोड़ी, जिसे 17 वर्षो बाद भी महसूस किया जा रहा है।
वर्तमान लक्ष्मण किलाधीश एवं दिवंगत आचार्य के शिष्य महंत मैथिलीरमण शरण ने बताया कि 10 मार्च को श्रद्धांजलि सभा एवं वृहद भंडारा के साथ पुण्यतिथि के कार्यक्रम का समापन होगा।
लक्ष्मण किलाधीश स्वामी सीतारामशरण को याद करना संतत्व के एक युग का स्मरण है। यद्यपि उनकी प्रतिभा दुनियादारी के किसी भी आयाम में लगकर अपना लोहा मनवा सकती थी किंतु उन्होंने तरुणाई में ही संतत्व की जो राह अख्तियार की, उससे कभी विचलित नहीं हुए। बिहार प्रांत के पटना जिलांतर्गत अपनी समृद्ध पैतृकता को तिलांजलि देकर अयोध्या आए स्वामी जी यहीं के होकर रह गए।
राम भक्ति के साथ उनका मन रामकथा के प्रसंगों में बखूबी रमा और शीघ्र ही उन्होंने अपनी पहचान तेजस्वी साधक व रामकथा के मार्मिक व्याख्याकार की बनाई। 1957 में प्रतिष्ठित पीठ लक्ष्मण किला की महंती संभालने के साथ उन्होंने धर्म, संस्कृति एवं अध्यात्म को संस्थाबद्ध भी किया। इस बीच उनका प्रभामंडल रामनगरी से आगे बढ़ता हुआ संपूर्ण सनातन जगत में स्थापित हुआ। वे स्वामी अखंडानंद एवं करपात्री जी के साथ संतों की शीर्ष त्रिमूर्ति में से एक माने जाते रहे। बीएचयू में बाल्मीकि रामायण पर उनका व्याख्यान मील का पत्थर माना जाता है। कहां तो वह गए थे एक सत्र को संबोधित करने पर साहित्य-संस्कृति के युवा अध्येताओं एवं अध्यापकों पर उनकी ऐसी छाप पड़ी कि दशकों तक उन्हें व्याख्यान के लिए विश्वविद्यालय आमंत्रित किया जाता रहा। 1973 में उन्होंने अयोध्या से सीतामढ़ी तक ऐसी रामबारात निकाली, जिसकी मिसाल आज भी दी जाती है। बिहार के तत्कालीन राज्यपाल एवं मुख्यमंत्री आदि ने बारात का राजकीय सम्मान किया और बारात की शोभा-सजावट कुछ वैसी झलक पेश करने वाली थी, जैसी त्रेता में भगवान राम की बारात रही होगी।
1975 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के समय जब मंदिरों के अधिग्रहण की आशंका छिड़ी तो वे किलाधीश ही थे, जिनकी मध्यस्थता में अधिग्रहण का बादल छटा। उनके इस प्रभाव के पीछे प्रवचन के फलक पर उनकी राष्ट्रीय ख्याति और बड़ी संख्या में शिष्यों प्रशंसकों की फौज रही। 1997 में इहलीला का संवरण करते हुए सांस्कृतिक-आध्यात्मिक जगत में ऐसी शून्यता छोड़ी, जिसे 17 वर्षो बाद भी महसूस किया जा रहा है।
Source: Spiritual News in Hindi & Hindi Panchang
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