Friday, 20 September 2013

Box Office News: The Lunchbox


The Lunchbox

मुंबई (अजय ब्रह्मात्मज)।
प्रमुख कलाकार: इरफान खान, नवाजुद्दीन सिद्दीकी, निम्रत कौर और भारती आचरेकर
निर्देशक: रितेश बत्रा
संगीतकार: मैक्स रिचटर
स्टार: 4.5

रितेश बत्रा की 'द लंचबॉक्स' सुंदर, मर्मस्पर्शी, संवेदनशील, रियलिस्टिक और मोहक फिल्म है। हिंदी फिल्मों में मनोरंजन की आक्रामक धूप से तिलमिलाए दर्शकों के लिए यह ठंडी छांव और बार की तरह है। तपतपाते बाजारू मौसम में यह सुकून देती है। 'द लंचबॉक्स' मुंबई के दो एकाकी व्यक्तियों की अनोखी प्रेमकहानी है। यह अशरीरी प्रेम है। दोनों मिलते तक नहीं, लेकिन उनके पत्राचार में प्रेम से अधिक अकेलेपन और समझदारी का एहसास है। यह मुंबई की कहानी है। किसी और शहर में 'द लंचबॉक्स' की कल्पना नहीं की जा सकती थी।
'द लंचबॉक्स' आज की कहानी हे। मुंबई की भागदौड़ और व्यस्त जिंदगी में खुद तक सिमट रहे व्यक्तियों की परतें खोलती यह फिल्म भावना और अनुभूति के स्तर पर उन्हें और दर्शकों को जोड़ती है। संयोग से पति राजीव के पास जा रहा इला का टिफिन साजन के पास पहुंच जाता हे। पत्‍‌नी के निधन के बाद अकेली जिंदगी जी रहे साजन घरेलू स्वाद और प्यार भूल चुके हैं। दोपहर में टिफिन का लंच और रात में प्लास्टिक थैलियों में लाया डिनर ही उनका भोजन और स्वाद है। इस रूटीन में टिफिन बदलने से नया स्वाद आता है। उधर इला इस बात से खुश होती है कि उसका बनाया खाना किसी को इतना स्वादिष्ट लगा कि वह टिफिन साफ कर गया। ऊपर वाली आंटी की सलाह पर वह हिचकते हुए साजन को पत्र भेज देती है। सामान्य औपचारिकता से आंरभ हुए पत्राचार में खुशियों की तलाश आरंभ हो जाती है। 

साजन और इला हिंदी फिल्मों के नियमित किरदार नहीं हैं। रिटायरमेंट की उम्र छू रहे विधुर साजन और मध्यवर्गीय परिवार की उपेक्षित बीवी इला को स्वाद के साथ उन शब्दों से राहत मिलती है, जो टिफिन के डब्बे में किसी व्यंजन की तरह आते-जाते हैं। एक-दूसरे के प्रति वे जिज्ञासु होते हैं। मिलने की भी बात होती है, लेकिन ऐन मौके पर साजन बगैर मिले लौट आते हैं। इला नाराजगी भी जाहिर करती है। वास्तव में साजन और इला मुंबई शहर के ऐसे लाखों व्यक्तियों के प्रतिनिधि हैं, जिनकी दिनचर्या का स्वयं के लिए कोई महत्व नहीं है। शहरी जिंदगी में अलगाव की विभीषिका से त्रस्त इन व्यक्तियों के जीवन में संयोग से कोई व्यतिक्रम आता है तो उन्हें अन्य अनुभूति होती है। 

साजन और इला के अलावा 'द लंचबॉक्स' में अनाथ असलम शेख भी हैं। असलम लापरवाह होने के साथ चालाक भी हैं। वह साजन के करीब आना चाहता है। साजन की बेरुखी से वह परेशान नहीं होता। अपनी कोशिशों से वह साजन को हमदर्द और गार्जियन भी बना लेता है। दोनों के रिश्ते में अनोखा जुड़ाव है। असलम के साथ हम मुंबई की जिंदगी की एक और झलक देखते हैं। 

रितेश बत्रा ने कुछ किरदारों को दिखाया ही नहीं है, लेकिन उनकी मौजूदगी महसूस होती है। 'ये जो है जिंदगी' के रिकॉर्डेड एपीसोड देखते समय साजन हमें अपनी बीवी से मिलवा देते हैं। असलम की मां भी तो नजर नहीं आती, जबकि असलम की हर बातचीत में उनका जिक्र होता है। इला के ऊपर के माले के देशपांडे अंकल का उल्लेख होता है, जो बिस्तर पकड़ चुके हैं। आंखें खुलने पर वे दिन-रात छत से टंगा पंखा ही निहारते रहते हैं। और देशपांडे आंटी ़ ़ ़ उनकी खनकदार और मददगार आवाज ही सुनाई पड़ती है। आरती आचरेकर की आवाज से भारतीय दर्शकों के मानस में उनकी आकृति और अदा उभर सकती है। रितेश बत्रा ने किरदारों के चित्रण में मितव्ययिता से फिल्म को चुस्त रखा है। अगर ये सभी किरदार दिखाए जाते तो फिल्म की लंबाई बढ़ती। उनकी अदृश्य मौजूदगी अधिक कारगर और प्रभावशाली बन पड़ी है। 

इरफान (साजन) और निम्रत कौर (इला) सहज, संयमित और भावपूर्ण अभिनय के उदाहरण हैं। डायनिंग हॉल के टेबल पर अपरिचित टिफिन को खोलते समय इरफान के एक-एक भाव को पढ़ा सकता है। टिफिन खोलते और व्यंजनों की सूंघते-छूते समय इरफान के चेहरे पर संचरित भाव अंतस की खुशी जाहिर करता है। ऐसे कई दृश्य हैं, जहां इरफान की खामोशी सीधे संवाद करती है। निम्रत कौर ने उपेक्षित पत्‍‌नी के अवसाद को अपनी चाल-ढाल और मुद्राओं से व्यक्त किया है। व्यस्त पति की उपेक्षा से घरेलू किस्म की महिला की दरकन को वह बगैर बोले बता देती हैं। इन दोनों प्रतिभाओं के योग में नवाजुद्दीन सिद्दिकी का स्वाभाविक अभिनय अतिरिक्त प्रभाव जोड़ता है। 

'द लंचबॉक्स' मुंबई शहर की भी कहानी है। हिंदी फिल्मों से वंचित शहरी जीवन के अंतरों में बसे आम आदमी के सुख-दुख को यह समानुभूति के साथ पेश करती है। फिल्म की खूबियों में इसका छायांकन और पाश्‌र्र्व संगीत भी है। फिल्म के रंग और ध्वनि में शहर की ऊब, रेलमपेल, खुशी और गम के साथ ही हर व्यक्ति से चिपके अकेलेपन को भी हम देख-सुन पाते हैं। 

अवधि-110 मिनट

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