Friday, 4 October 2013

Bollywood News in Hindi: Icon of indian cinema Manoj kumar


Manoj kumar

देशभक्ति के जज्बे से सजी फिल्मों का खूबसूरत तोहफा देने वाले अभिनेता व निर्देशक मनोज कुमार को चौथे जागरण फिल्म फेस्टिवल में आइकन ऑफ द इंडस्ट्री के पुरस्कार से नवाजा गया। इस मौके पर कुणाल एम. शाह के साथ उन्होंने साझा की अपने कॅरियर व जिंदगी से जुड़ी दिलचस्प बातें..
आपने अपना नाम हरिकिशन गिरी गोस्वामी से मनोज कुमार इसलिए किया, क्योंकि आप दिलीप कुमार के बहुत बड़े फैन हैं?

मैंने बचपन में उनकी 'जुगनू' देखी थी। उसमें उनका किरदार मर जाता है। उसके एक महीने बाद 'शहीद' देखी। उसमें भी उनके किरदार की मौत हो जाती है। फिल्म देखने के बाद सिनेमा हॉल से मैं जब बाहर निकला, तो फिल्म के पोस्टर की ओर इशारा करते हुए कहा, वह सूरज था, जिसकी मौत फिल्म में हो गई थी। मां ने उस पर कहा, उनका नाम दिलीप कुमार है। मैं उनकी बात समझ नहीं पाया। फिर मैं अपनी दादी के पास गया। मैंने उनसे पूछा कि एक इंसान अपनी जिंदगी में कितनी बार मर सकता है। उन्होंने कहा, बस एक बार। मैंने फिर पूछा कि क्या कोई मर कर फिर जिंदा भी हो सकता है? उन्होंने कहा, वैसा करिश्मा सिर्फ कोई फरिश्ता कर सकता है। मैं दिलीप कुमार की ही तरह फरिश्ता बनना चाहता था। 'शबनम' देखने के बाद मैंने तय ही कर लिया कि मुझे एक्टर ही बनना है। उसके बाद से मैंने खुद को मनोज पुकारना शुरू कर दिया, जो 'शबनम' में दिलीप कुमार के किरदार का नाम था। 

'क्रांति' में उन्हें डायरेक्ट करना कैसा रहा?
एक बहुप्रतीक्षित सपना पूरा होने जैसा था। मैं जब उन्हें फिल्म की कहानी सुनाने गया तो वह जल्दी में थे। उन्हें अपने भाई के पास जाना था, क्योंकि उनकी तबियत खराब थी। उन्होंने मुझसे कहा, कहानी सुनने में कम से कम तीन घंटे का वक्त लगता है। मैंने जवाब दिया, मैं आपके सिर्फ दो मिनट लूंगा। मेरा मानना है कि जो कहानी दो मिनट में सुनाई न जा सके, वह कहानी नहीं है। मैंने उन्हें कहानी सुनाई और वह मान गए। हमने पैसों की बात की और उनसे फिल्म का पहला ट्रायल भी देखने को कहा। उन्होंने उसे देखा और शूट के पश्चात उन्हें कोई गिला-शिकवा नहीं था। आज तक वह कहते हैं कि 'क्रांति' ने दूसरी इनिंग का आगाज करवाया।

आप उनके संपर्क में आज भी हैं?
जी हां। मैं सायरा (बानू) को हर चार दिन बाद कॉल करता हूं और दिलीप साहब का कुशलक्षेम पूछता रहता हूं। हम दोनों डेढ़ साल पहले मिले थे, पर उन दिनों वह अल्जाइमर बीमारी से पीड़ित थे। वह मुझे पहचान भी नहीं सके।

जागरण ने आपको आइकन ऑफ द इंडस्ट्री से नवाजा। आपके लिए आइकन के क्या मायने हैं?
कुछ खास नहीं। फिल्म बिरादरी का हिस्सा हूं। फिल्में बनाना मेरा काम है। आइकन शब्द आपको प्रेरित करता है कि आप अच्छी फिल्में बनाएं। मेरी कोशिश रही है कि रेहड़ी-ठेले चलाने वाले लोगों को क्वॉलिटी फिल्में दे सकूं।
'उपकार' बनाने के लिए पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने आपको प्रेरित किया?

जी हां। 'शहीद' का प्रीमियर दिल्ली के प्लाजा सिनेमा हॉल में हुआ था। उन्हें वह फिल्म बहुत पसंद आई। उन्होंने बाद में मुझे अपने घर चाय पर बुलाया और 'जय जवान, जय किसान' का नारा सुनाया। उसी नारे के इर्द-गिर्द घूमती कहानी पर फिल्म बनाने को कहा। 

आप किन्हें आइकन मानते हैं?
कई सारे हैं। वी शांताराम से लेकर राजकपूर, दिलीप कुमार, देव आनंद, गुरुदत्त, एस.एस वासन। उन सबों का जादू सालों साल तक चला। 

आपकी पैदाइश एबटाबाद की है। वह जगह अब ओसामा बिन लादेन की मौत के चलते जानी जाती है। आपकी प्रतिक्रिया?

यह आश्चर्यजनक है। हालांकि जहां ओसामा को मारा गया, वहां से मेरा पैतृक घर काफी दूर है। भारत आने के बाद से मैं उस जगह पर दो बार गया था। मैं आखिरी बार वहां 1977 में गया था। 

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Source: Bollywood News in Hindi

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