नई दिल्ली [आशुतोष झा]। चुनाव में जाति और धर्म हावी होने की बात भले ही कही जाती रही हो, आंकड़े कुछ और कहते हैं। चुनाव आयोग का सर्वे कहता है कि 64 फीसद मतदाता उम्मीदवारों का चयन अपने विवेक से करते हैं। धार्मिक, जातिगत और पारिवारिक दबाव महज 25 फीसद होता है। बात सिर्फ इतनी नहीं है, तकरीबन आधे वोटर मतदान केंद्र तक इसलिए जाते हैं क्योंकि उन्हें अपना अधिकार जताने का मौका मिलता है।
हिंदूवादी नेता की छवि को तोड़ते हुए भाजपा के प्रधानमंत्री उम्मीदवार नरेंद्र मोदी ने 'देवालय से पहले शौचालय' की बात यूं ही नहीं कही है। शायद उन्हें चुनाव आयोग के आंकड़ों ने बल दिया है जिनमें यह स्पष्ट है कि बढ़ती मतदान जागरूकता के साथ अब विकास का मुद्दा केंद्र में होगा। पांच राज्यों में चुनावी बिगुल बजने के साथ ही चुनाव आयोग ने पहली बार मतदाताओं में जागरूकता के लिए अलग से एक पर्यवेक्षक तैनात करने का निर्णय लिया है। मंशा यह है कि अपने हक के साथ भलाई के लिए ज्यादा से ज्यादा मतदाता वोट करें।
मतदान जागरूकता के लिए अब तक चलाए जा रहे कार्यक्रम में आयोग ने पाया है कि जातिगत आधार पर 10.5 फीसद लोग वोट डालते हैं जबकि 7.6 फीसद मतदाता उम्मीदवारों के धर्म से प्रभावित होते हैं। आयोग अपने जागरूकता कार्यक्रम में ऐसे लोगों पर भी ध्यान केंद्रित करेगा। जिस गति से नए वोटरों की संख्या बढ़ रही है उसके बाद चुनावी आंकड़े कुछ और बदलें तो आश्चर्य नहीं।
मोदी शायद इन्हीं आकड़ों को आधार बनाकर आगे की सीढ़ी तय करना चाहते हैं। अपने भाषणों में वह जहां लगातार मतदान को जश्न की तरह मनाने की अपील कर रहे हैं। शौचालय जैसी प्राथमिक समस्या को मंदिर से आगे रखकर उन्होंने इससे जूझ रहे न सिर्फ उन 65 फीसद से ज्यादा हिंदू और अल्पसंख्यक मतदाताओं को आकर्षित किया है बल्कि ग्रामीण महिलाओं को भी जोड़ने की कोशिश की है। गौरतलब है कि मतदान में ग्रामीणों की भागीदारी शहरियों से ज्यादा होती है।
पिछले लोकसभा चुनाव की बात करें पुरुषों के मुकाबले लगभग साढ़े तीन करोड़ ज्यादा महिलाओं ने वोट दिया था। लगभग इतने ही वोटों के अंतर ने कांग्रेस को केंद्र की सत्ता दिला दी थी। पिछले चुनाव में कांग्रेस को लगभग 12 करोड़ मत मिले थे जबकि भाजपा को करीब आठ करोड़।
Source: News in Hindi
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