पटना, नवीन कुमार मिश्र। उन दिनों राज्य की वित्तीय स्थिति बहुत खराब थी। सरकार के पास कर्मचारियों को वेतन देने के लिए भी पैसे नहीं थे। अदालत में प्रतिशपथ पत्र दायर करने पर भी संकट था।
जगदानंद सिंह जल संसाधन विभाग के मंत्री थे और मैं प्रधान सचिव। अगस्त 1995 का समय था, एक दिन अचानक जगदानंद सिंह ने कहा कि आप वित्त विभाग क्यों नहीं संभाल लेते। मैंने कहा वित्त विभाग में काम करने का मुझे कोई अनुभव नहीं है। पता नहीं आगे लालू प्रसाद से उनकी क्या बात हुई मुझे प्रधान सचिव वित्त बना दिया गया।
26 अगस्त का दिन था। दो अपर वित्त आयुक्त थे एस विजय राघवन और शंकर प्रसाद। बात की तो मालूम हुआ अगले माह का वेतन देने को भी पैसे नहीं हैं। सरकार 200 करोड़ के घाटे में चल रही थी। तय हुआ केंद्र से एडवांस टैक्स और अतिरिक्त केंद्रीय सहायता एडवांस में ली जाए। हर माह इसी तरह काम चल रहा था। बात समझ में नहीं आई कि पैसा जा कहां रहा है। मंत्रिमंडलीय उप समिति ने भी चिंता जताई। वास्तविक बजट नहीं था। फार्मल बजट था। यानी हर साल 10 फीसद का अतिरिक्त प्रावधान। तय हुआ वास्तविक बजट बने। सभी विभागों की इसी सिलसिले में विभागवार समीक्षा शुरू हुई। निर्देश दिया गया कि वास्तविक बजट बनाकर लाएं।
खड़े हुए कान
पशुपालन विभाग बार-बार कुछ न कुछ बहाना बना देता था। देखा गया तो पता चला कि 70 करोड़ का बजट और 175-180 करोड़ खर्च। बस कान खड़ा हो गया। विभाग की दलील थी महंगाई, वाहन, त्योहार अग्रिम, जानवर को बचाने के लिए दवा में ज्यादा खर्च की वजह से ऐसा हो रहा है। मगर महंगाई और अग्रिम तो दूसरे विभागों के लिए भी था। दुर्गा पूजा के दौरान तय किया कि पशुपालन विभाग का खर्च बढ़ने नहीं देंगे। पता कैसे चलेगा सवाल था? अपर वित्त आयुक्त ने बताया महालेखाकार हर माह खर्च का स्टेटमेंट देते हैं। मगर तीन-चार माह विलंब से आता है। वह ब्योरा रुटीन मामलों की तरह निचले स्तर पर पड़ा रहता था। उच्चस्तर पर स्क्रूटनी नहीं होती थी। पशुपालन विभाग के खर्च पर हम लगातार नजर रखे हुए थे। अगस्त तक का हिसाब ठीकठाक था।
.और भागा हुआ वित्त विभाग पहुंचा
बिना कोई पर्चा उलटे तत्कालीन प्रधान सचिव वित्त, विजय शंकर दुबे लगातार जारी थे। .मेरे पास तब बिजली बोर्ड के अध्यक्ष का अतिरिक्त प्रभार था। 19 जनवरी 96 का दिन। शाम के कोई सात बजे थे। फोन की घंटी बजी। सितंबर 95 का ब्योरा आया था। अपर वित्त आयुक्त ने बताया कि 72 करोड़ के बजट में से 125 करोड़ खर्च कर दिया गया है। यानी सिर्फ छह माह में यह खर्च। मैने दोनों अपर वित्त आयुक्त राघवन और शंकर प्रसाद को वित्त विभाग में रहने का निर्देश दिया और खुद भी भाग कर पहुंचा। 8 बजे थे। विमर्श किया गया कि जांच कहां से कैसे हो? इस दौरान विभाग में भी तरह-तरह की अफवाह. दक्षिण बिहार में ज्यादा घोटाले हो रहे हैं। अंतत: उसी दिन यानी 19 जनवरी को दक्षिण बिहार के सभी उपायुक्तों को संक्षिप्त कोडेड वायरलेस संदेश भेजा गया। लाइन पूरी तरह याद है। ''रिपोर्ट यूनिट वाइज एक्स्पेंडीचर डिटेल अंडर एनिमल हसबेंडरी हेड''। . अगले ही दिन उप सचिव वित्त, मान सिंह को डोरंडा कोषागार भेजा गया। .दिन में फोन आया यहां कोषागार में कोई नहीं है। मुझे अजीब लगा। पांच-सात मिनट में ही फिर फोन आया कि जान पर खतरा है, दो मोटर साइकिल सवार धमकी देकर गए हैं। तब रांची डीसी को फोन पर आवश्यक निर्देश दिए गए।
यह था तरीका
मान सिंह ने सिर्फ दो-तीन डीसी बिल [डिटेल कंटीजेंट बिल] का हवाला दिया। एक बिल के साथ 100-200 वाउचर। हर वाउचर 14999 रुपये का। दूसरे बिल में भी करीब 75-80 वाउचर। प्रत्येक 49999 रुपये का। तब संयुक्त वाणिज्य -कर आयुक्त शिवेंदु को मामले की पड़ताल का जिम्मा दिया। पता चला कि जिला पशुपालन अधिकारी को 14999 और क्षेत्रीय पशुपालन अधिकारी को 49999 रुपये तक के बिल पास करने का अधिकार था। और इसी सीमा की आड़ में यह खेल चल रहा था।
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