Saturday, 5 October 2013

News in HinDI: Reservation Issue: UP government in Double trouble


Reservation Issue

इलाहाबाद [हरिशंकर मिश्र]। आरक्षण पर हाईकोर्ट के आदेश सूबे की सियासी गणित के गडड्मड्ड हो गई है। लोकसभा चुनाव से पहले पुलिस भर्ती का राजनीतिक दांव भी उलटा पड़ सकता है। आरक्षण पर हाईकोर्ट के आदेश का पालन करने से जहां सपा के वोट बैंक अहीर, यादव, ग्वाला, यदुवंशी आदि आरक्षण के दायरे से बाहर निकल जाएंगे, वहीं अनुसूचित जाति की चमार, धूसिया, जाटव आदि अन्य जातियां भी आरक्षण के दायरे से बाहर निकल सकती हैं।

दूसरी ओर इलाहाबाद हाई कोर्ट के ताजा फैसले की रोशनी में प्रदेश सरकार के सामने दो विकल्प हैं। सूत्रों ने बताया कि सरकार मौजूदा आरक्षण व्यवस्था में मॉडिफिकेशन कर उच्च न्यायालय को अवगत करा सकती है नहीं तो फिर विशेष अनुमति याचिका दायर करने का विकल्प तो खुला है ही। स्थिति का परीक्षण किया जा रहा है और शीघ्र ही यथोचित निर्णय किया जाएगा।

हाईकोर्ट के आदेश ने सरकार के सामने दोहरी मुश्किल खड़ी कर दी है। एक ओर जहां उसके पास आरक्षण का लाभ पाने वाली जातियों के प्रतिनिधित्व का आंकड़ा नहीं है, वहीं 41 हजार से अधिक पुलिस भर्ती का चुनावी लाभ भी उससे छिटक सकता है। पुलिस भर्ती के बीस हजार से अधिक पद आरक्षण के दायरे में हैं। 2007 से पहले सपा सरकार में हुई पुलिस भर्ती में सबसे अधिक लाभान्वित पिछड़ा वर्ग की अगड़ी जातियां ही हुई थीं। इस बार भी सपा इस भर्ती के सहारे अपने वोट बैंक को संगठित करने में सफल हो सकती थी लेकिन आरक्षण के अदालती आदेश ने इसमें पेंच फंसा दिया है। 2001 में गठित सामाजिक न्याय समिति ने जो रिपोर्ट सरकार को सौंपी थी यदि उसे ही आधार बनाएं तो आरक्षण की परिधि से पिछड़ा वर्ग की पटेल और कुर्मी जाति भी बाहर जा सकती है। समिति की रिपोर्ट में यह कहा जा चुका है कि यह जातियां पर्याप्त प्रतिनिधित्व हासिल कर चुकी हैं। नये सिरे से इनके आंकड़े जुटाए गए तो कुछ और जातियां भी इसमें शामिल हो सकती हैं। दूसरी ओर कई ऐसी जातियां हैं जिनके लिए समाज की मुख्य धारा में आने की राह आसान हो जाएंगी। पिछड़ा वर्ग में केवट, मल्लाह, निषाद, मोमिन, कुम्हार, कश्यप, भर, राजभर आदि जातियां ऐसी हैं जिन्हें उनकी आबादी के अनुपात में आरक्षण का समुचित लाभ नहीं मिल पाया है। कमोबेश यही स्थिति अनसूचित जाति के आरक्षण में भी है। 

उच्च न्यायालय में ही एक अन्य मुकदमें में लगाए गए पूरक शपथ-पत्र के अनुसार इस वर्ग की पासी, तरमाली, धोबी, कोरी, वाल्मीकि, खटिक आदि जातियों को उनकी आबादी के हिसाब से प्रतिनिधित्व नहीं मिल पाया था। वैसे हाईकोर्ट में जवाब दाखिल करने के लिए आंकड़े जुटा पाना भी सरकार के लिए चुनौती है। जातीय आधार पर जनगणना केंद्र सरकार की ओर से की जा रही है और वह प्रगति पर है। मुश्किल यह है कि यदि वह सामाजिक न्याय समिति की रिपोर्ट को आधार बनाकर जवाब देती है तो भी उसे नुकसान ही उठाना पड़ेगा।

.. तो बदल गई होती आरक्षण की तस्वीर

इलाहाबाद [जागरण ब्यूरो]। अदालती आदेशों और सामाजिक न्याय समिति की सिफारिशों पर यदि ध्यान दिया गया होता तो आरक्षण की तस्वीर काफी पहले ही बदली नजर आती।

2001 में भाजपा शासन में सामाजिक न्याय समिति ने जातीय आधार पर आरक्षण के बाबत रिपोर्ट जरूर दी थी लेकिन उसकी रिपोर्ट का आधार मुख्य रूप से ग्रामीण क्षेत्र थे। इस समिति के अध्यक्ष तत्कालीन संसदीय कार्यमंत्री हुकुम सिंह थे और सदस्य तत्कालीन स्वास्थ्य एवं चिकित्सा मंत्री रमापति शास्त्री व विधान परिषद सदस्य दयाराम पाल सदस्य बनाए गए थे। समिति ने उस समय हर पांच साल में आरक्षण व्यवस्था व उसके मूल्यांकन की सिफारिश भी की थी लेकिन वह ठंडे बस्ते में ही रह गई। समिति ने कहा था कि ऐसा इसलिए जरूरी है क्योंकि आगे चलकर कुछ जातियों का सामाजिक एवं शैक्षिक स्तर अन्य जातियों की अपेक्षा बेहतर हो सकता है। इसी रिपोर्ट को राज्य सरकार ने एक अन्य मामले में अपने हलफनामा के साथ संलग्न किया है।

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Source: News in Hindi

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