Sunday, 24 November 2013

Quality is not Enough Alone

mutual fund
पिछले कुछ हफ्तों से भारत में व्यक्ति पूजा की महामारी जिस तरह फैली है उसका विश्लेषण समाज विज्ञानी आने वाले वक्त में करेंगे। यह ऐसी प्रवृत्ति है जिसमें महज गुणवत्ता को मान्यता देने की चाह भर नहीं है। केवल क्रिकेट में ही नहीं, राजनीति में भी यह दिखाई दे रही है। वस्तुत: शायद ही कोई ऐसी पार्टी बची होगी जिसमें चुनिंदा पूजनीय नेताओं का समूह न हो और समर्थकों को ये नेता सद्गुणों की खान नजर आते हैं। यह प्रवृत्ति जीवन के हर उस क्षेत्र में दिखाई देती है जहां लोग विशेषज्ञ पर निर्भर हैं। यहां तक कि निवेश के क्षेत्र में भी कुछ ऐसा ही है। उदाहरण के लिए वारेन बफेट को ही लीजिए-जिनके चारों तरफ जबरदस्त आभामंडल गढ़ दिया गया है।

यह बुजुर्ग सज्जन निवेश के मामले में बेहद कामयाब हैं और इन्हें इक्विटी निवेश के मामलों में विश्व का सबसे बड़ा विशेषज्ञ माना जाता है। उन्होंने क्या कहा और क्या किया, इसे बताने के लिए बाजार में पुस्तकों, पत्रिकाओं और आलेखों की भी कोई कमी नहीं है। इन सबमें कुल मिलाकर यही निष्कर्ष निकाला गया होता है कि बफेट जिस चीज को अपने जादुई हाथों से छू देते हैं वह सोना बन जाती है और यदि ये जादुई हाथ विफल होते हैं (जो कि हो सकते हैं, जैसा कि क्रिकेट या किसी भी क्षेत्र में होता है) तो निराशा भी उतनी ही बड़ी होती है। भारत के म्यूचुअल फंड उद्योग में यही कथा अपने ढंग से चरितार्थ होती है। पिछले पांच सालों से भारत में इक्विटी बाजारों में जो हलचल रही है उसमें ऐसे ऊंचे दावे करने वाले फंडों और फंड मैनेजरों की कोई कमी नहीं रही जिन्हें कभी चमत्कारी माना जाता था, परंतु जो अब विफलता के प्रतीक बन गए हैं।

व्यावहारिक तौर पर अच्छा निवेशक होने के लिए दिमाग के अलावा अच्छे तौर तरीकों, प्रतिक्रियाओं और पद्धतियों की जरूरत होती है तथा बुनियादी बातों का ध्यान रखना पड़ता है। यह बात संभवत: हर क्षेत्र पर लागू होती है। सचिन तेंदुलकर की तारीफ उनकी असाधारण प्रतिभा के लिए होती है। परंतु वस्तुत: अकेले प्रतिभा के बूते कोई 25 साल तक कामयाबी हासिल नहीं कर सकता। जाहिर है कि उन्हीं म्यूचुअल फंडों का चयन किया जाना चाहिए जिनका प्रबंध न केवल अच्छे फंड मैनेजरों के हाथों में हो, बल्कि जो लंबे समय से अच्छा प्रदर्शन कर रहे हैं।

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